ई निरक्षरता, पर साक्षर होना कब मना था ,
अध्यापक के हाथ से भब्य जो मंदिर बना था
स्वपन में सपना सजा था ,
शब्दों में वह कब सजा था
रह गया निरक्षर
लेकिन साक्षर होना कब मना था,
है भविष्य में जो अँधियारा ,
प्रकाश लाना कब मना था
जिन्दगी अंधियारे से भरी थी
आँखों से मस्ती झलकती ,
पर साक्षरता का नाम नहीं था
पुरखो ने भी नहीं देखा शब्द किस बाला का नाम है,
ऐसा अंधकार उस समय बड़ा था
करती थी म्हणत मजदूरी मैं ,
पर साक्षर होने का नाम नहीं था,
माँ-बाप ने भी झोका भाद में मुझे ,
न सोचा पढाई के बारे में
यही अन्याय उनका बड़ा था,
रोता था मैं दिन रो रत को ,
न थी मेरी परबह किसी परिवार को,
साक्षर होना सपना था मेरा
न हुआ कभी वो मेरा
दुत्कारते थे साक्षर लोग मुझे
लेकिन साक्षर होना कब मना था
हंसी वो मेरी खो ही गयी थी ,
न जाने कहा उड़ सी गयी थी,
शर्म तो मुझे आती थी साक्षर के सामने ,
पर मेरे नसीब में निरक्षर होना लिखा था,
फिर एक दिन में साक्षर हुई ,
अक्षर भागते थे भूख-प्यास मेरी
आखिरकार सपना हुआ मेरा भी पूरा
पहुंची थी बिकसित देश में
मिली थी जानकारी मुझे सबसे ज्यादा
पूछते थे प्रशन मुझसे सभी लोग
किया मैंने अबिष्कार नये तकनीक का
लेकिन आता था रोष मुझे उन गरीब बेचारो बच्चो पर
जो करते थे मजदूरी अपने पेट के लिए
फिर एक दिन मैंने सोचा
क्यों न करू में सेवा इनकी
फिर बनाया साक्षर सभी को
लिया मैंने खुद से एक बड़ा
बनाया साक्षर बच्चे व बुजुर्ग ज्यादा
ताकि मेरे देश की मिटे निरक्षरता ,
और फैले साक्षरता का उजियारा।