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Monday, June 21, 2010

दोस्ती का तजुर्बा |

पहली बार ,
मैंने उसे देखा,
देखते ही पढ़ लिया ,
उसकी मस्तिस्क की रेखा,
शायद
वह दुनियां की भीड़
में अकेली थी |
एकदम गुमसुम ,मासूम ,उदास
सुन्दरता की ' प्रतिमूर्ति '
सांवला वर्ण ,आकर्षक नयन ,
मैं एकटक निहार रहा था उसे,
उससे चोरी छिपे|
तभी उसकी नज़र मुझपर पड़ी,
अचानक हुई हलचल ,
वह हो गयी खड़ी |
देखते ही देखते कही और चल पड़ी |
शायद शर्मा गयी हो |

दुसरे दिन वही , उसी जगह
उससे मुलाकात हुई ,
दो चार बात हुई ,
मैंने उससे उसकी उदासी की वजह पूछी ?
उसका जबाब था ...!
" अकेलापन "
"किसी की तलाश "
मैनी कहा 'किसका' ?
वह मूक हो गयी !
कुछ पल के लिए ,
फिर होठो पे एक मुस्कान बिखेर कर,
पुनः धीरे से बोली
" एक अच्छे मित्र की "
जो आपकी तरह हो ...!
मैं इंकार न कर सका ,
हामी भरी और मित्रता कर ली...!
विना सोचे ,समझे ,विचारे ,
उसने मुझमे क्या पाया ?
जो मुझे अपना दोस्त बनाया ?
"शायद " मेरी इंसानियत ,मासूमियत या
"बात करने की क़ाबलियत "
खैर जो भी हो ..........!
दिन गुजरे|
मेरी दोस्ती प्रगाढ़ हो चुकी थी

फिर एकाएक जोर से बिजली गिरी,
मेरी दोस्ती के बंधन पे |
वो विदा हो रही थी !
मेने खुद अपने हाथो से उसे विदा किया
वो चली गयी,
ज़माने की भीड़ में,
मुझे अकेला छोड़कर
खुश होकर अपना "अकेलापन " खोकर|
उनलोगों के साथ,
जो उसके अपने थे
मेरे लिए तो वो एक ख्वाब थी
जो नींद के साथ शुरू हुआ
और नींद टूटते ही ख़तम|
आज भी उसकी दोस्ती का
एक दीपक हमारे दिल में
प्रकाशमान हैं ,
लेकिन टिमटिमाते तारे की तरह......!

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